चीन-तिब्बत संवाद

चीन- तिब्बत संवाद पर एक नजर

परम पावन दलाई लामा की हमेशा से स्पष्ट कहना रहा है कि तिब्बत के प्रश्न को तिब्बती लोगों के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए बातचीत के माध्यम से शांतिपूर्वक हल किया जाना चाहिए। चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण करने के तुरंत बाद १९५१ में परम पावन ने ल्हासा में चीनी कमांडरों को बातचीत में शामिल कर लिया और १९५४ में टकराव और रक्तपात से बचने के लिए माओत्से तुंग और चाउ एन-लाई के साथ बातचीत की। १९५९ के तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह के बर्बर दमन के दौरान भारत पलायन कर जाने के बाद भी परम पावन ने शांतिपूर्ण बातचीत से समाधान का आह्वान करना जारी रखा, लेकिन कट्टरपंथी कम्युनिस्ट सुधारों और तथाकथित सांस्कृतिक क्रांति के वर्षों में चीनी नेतृत्व बातचीत करने के मूड में नहीं था।

माओत्से तुंग की मृत्यु और सांस्कृतिक क्रांति के अंत के बाद चीन में उदारीकरण और खुलेपन की नीति की शुरुआत हुई। नए चीनी नेतृत्व ने निर्वासित तिब्बती नेतृत्व से संपर्क साधने का साहसिक कदम उठाया। १९७८ के अंत में हांगकांग में सिन्हुआ समाचार एजेंसी (पीआरसी का वास्तविक दूतावास) के तत्कालीन प्रमुख ली जुइसिन ने परम पावन दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोंडुप से संपर्क किया और उन्हें बीजिंग की निजी यात्रा के लिए आमंत्रित किया। बदले में थोंडुप ने परम पावन दलाई लामा की स्वीकृति मांगी और फरवरी-मार्च १९७९ में बीजिंग की यात्रा की। वहां, उन्होंने १२ मार्च १९७९ को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता देंग शियाओपिंग सहित कई चीनी नेताओं से मुलाकात की। डेंग ने थोंडुप से कहा कि ‘तिब्बत की आजादी को छोड़कर सभी मुद्दों पर चर्चा हो सकती है।’ उन्होंने तिब्बती नेतृत्व को तिब्बत में प्रतिनिधिमंडल भेजने और चीजों को खुद देखने के लिए भी आमंत्रित किया। परिणामस्वरूप, निर्वासित नेतृत्व ने १९७९ और १९८० में तिब्बत के लिए चार तथ्यान्वेषी प्रतिनिधिमंडल भेजे। इस प्रतिनिधिमंडल के समक्ष तिब्बतियों की भीड़ जमा हो गई और चीन को चकित करते हुए तिब्बत को ‘धरती पर साक्षात नरक’ बताया और वहां पिछले दो दशकों में उन्हें और उनके परिवारों के साथ घटित हुई त्रासदियों की कहानियों की झड़ी लगा दी।

1980 में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव हू याओ-बैंग ने तिब्बत की ऐतिहासिक यात्रा की। इस दौरान उन्होंने अपनी सरकार द्वारा की गई गलतियों को पहचाना और नीति में बड़े बदलावों की घोषणा की। इसके तहत तिब्बत से अधिकांश चीनी कैडरों को  वापस करना भी शामिल था। १९८१ में चीनी सरकार ने दलाई लामा को ‘मातृभूमि’ (चीन में लेकिन तिब्बत में नहीं) लौटने की अनुमति देने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन किसी भी राजनीतिक वार्ता की आवश्यकता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इस प्रकार उन्होंने दलाई लामा की वापसी के लिए उनकी तिब्बती मुद्दे के समाधान की शर्त तक को भी खत्म करने का प्रयास किया। दो वरिष्ठ तिब्बतियों का प्रतिनिधिमंडल क्रमशः १९८२ और १९८४ में तथ्यान्वेषी वार्ता के लिए बीजिंग भेजे गए थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुद्दा दलाई लामा का नहीं बल्कि साठ लाख तिब्बतियों के कल्याण का है। इस प्रतिनिधिमंडल ने पूरे तिब्बती लोगों के लिए स्वतंत्रता की स्थिति पर गंभीर राजनीतिक वार्ता का प्रस्ताव रखा, जिसमें यू-त्सांग, खाम और अमदो- तीन प्रांत शामिल थे। लेकिन इसी बीच हू याओ-बैंग को (तिब्बती मुद्दे में रुचि लेने उनकी इच्छा के अलावा अन्य कारणों से) पद से हटा दिया गया और घोषित सुधारों को वापस लेने के साथ वास्तविक वार्ता की उम्मीद समाप्त हो गई।

अब तिब्बती नेतृत्व के पास केवल एक ही विकल्प बचा था- अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहायता के लिए सीधे अपील करना। २१ सितंबर १९८७ को अमेरिकी कांग्र्रेस के मानवाधिकार समूह को संबोधित करते हुए परम पावन दलाई लामा ने तिब्बत के लिए अपनी पांच सूत्रीय शांति योजना की घोषणा की। पांच बिंदु ये हैं: (i) संपूर्ण तिब्बत को शांति के क्षेत्र में परिवर्तित करना (ii) चीन की जनसंख्या हस्तांतरण नीति का परित्याग जो तिब्बतियों के अस्तित्व के लिए खतरा है; (iii) तिब्बती लोगों के मौलिक मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान; (iv) तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण की बहाली और संरक्षण तथा परमाणु हथियारों के उत्पादन और परमाणु कचरे के डंपिंग के लिए चीन द्वारा तिब्बत के उपयोग का परित्याग; और (v) तिब्बत की भविष्य की स्थिति और तिब्बती और चीनी लोगों के बीच संबंधों पर गंभीर बातचीत की शुरुआत।

परम पावन ने इस भाषण में तिब्बती स्वतंत्रता का आह्वान नहीं किया था, बल्कि उन्होंने कहा था कि एक ऐसा समाधान जिसके लिए चीन जनवादी गणराज्य (पीआरसी) से अलग होने की आवश्यकता नहीं होगी और वह परस्पर सहयोग पर आधारित होगा। चीन की प्रतिक्रिया नकारात्मक थी और उसने इस मुद्दे पर दलाई लामा की बड़ी तीखी आलोचना की। इस आलोचना के खिलाफ तिब्बत में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए, जिनका चीनी सशस्त्र बलों ने हिंसक दमन किया। प्रतिरोध और दमन का चक्र मार्च १९८९ में मार्शल लॉ की घोषणा के साथ समाप्त हुआ। तिब्बत में बिगड़ती स्थिति के बावजूद परम पावन ने चीन के साथ बातचीत करने के अपने प्रयासों को जारी रखा।

१५ जून १९८८ को परम पावन दलाई लामा ने स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय संसद के सदस्यों को संबोधित करते हुए अपनी पांच सूत्री शांति योजना के पांचवें बिंदु पर विस्तार से बताया और तिब्बत की भविष्य की स्थिति पर पीआरसी के साथ बातचीत के लिए एक रूपरेखा तैयार की। स्ट्रासबर्ग प्रस्ताव में परम पावन ने तिब्बत के तीन प्रांतों के एकीकरण और ‘एक स्वशासी लोकतांत्रिक राजनीतिक इकाई’ के रूप में परिवर्तन का आह्वान किया। यह तिब्बत के स्वयं और उनके पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के सहयोग से वहां के लोगों की सहमति से बने कानून पर आधारित था। परम पावन के प्रस्ताव की खास विशेषताएं यह थीं कि तिब्बती अपना शासन स्वयं करेंगे और एक लोकतांत्रिक व्यवस्था और अपनी पसंद के नेताओं के नेतृत्व में अपने आंतरिक मामलों के लिए जिम्मेदार होंगे। जबकि पीआरसी की सरकार विदेशी मामलों के लिए जिम्मेदार होगी और उसे केवल रक्षा उद्देश्यों के लिए तिब्बत में सीमित संख्या में सैनिकों को रखने की अनुमति होगी।

इस पर और उसके बाद की पहल पर बीजिंग की प्रतिक्रिया मिश्रित थी। २३ जून १९८८ को चीन के विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस बयान जारी कर कहा कि पीआरसी तिब्बत की ‘स्वतंत्रता, अर्ध-स्वतंत्रता या प्रच्छन्न रूप में स्वतंत्रता’ को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन कुछ महीने बाद २१ सितंबर को नई दिल्ली में चीनी दूतावास ने परम पावन दलाई लामा के प्रतिनिधि से कहा कि उनकी सरकार दलाई लामा के साथ सीधी बातचीत में दिलचस्पी रखती है। इस आशय का एक प्रेस बयान अगले दिन जारी किया गया, जिसमें कहा गया था, ‘बातचीत बीजिंग, हांगकांग, या हमारे किसी भी दूतावास या विदेश में वाणिज्य दूतावास में हो सकती है। यदि दलाई लामा को इन स्थानों पर बातचीत करने में असुविधा होती है तो वह अपनी इच्छानुसार कोई भी स्थान चुन सकते हैं।’ विज्ञप्ति में आगे कहा गया कि हालांकि, कोई भी विदेशी इसमें शामिल नहीं होना चाहिए और स्ट्रासबर्ग में दलाई लामा द्वारा पेश किए गए नए प्रस्ताव को बातचीत का आधार नहीं माना जा सकता है। तिब्बती नेतृत्व ने उसी दिन एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसमें कहा गया था, ‘हालांकि हमारे पास अलग-अलग विचार और कई मुद्दे हैं, लेकिन हम सीधे संवाद के माध्यम से इन पर चर्चा करने और हल करने के लिए तैयार हैं।’

२५ अक्तूबर १९८८ को तिब्बती नेतृत्व ने नई दिल्ली में चीनी दूतावास को एक संदेश दिया, जिसमें जिनेवा को वार्ता स्थल के रूप में प्रस्तावित किया गया था। चीनी सरकार ने स्थल के तिब्बती विकल्प को अस्वीकार कर दिया और दलाई लामा पर कपट करने का आरोप लगाया। तिब्बती नेतृत्व द्वारा प्रस्तावित वार्ता दल को स्वीकार करने से इनकार करते हुए बीजिंग ने कहा कि वह दलाई लामा से व्यक्तिगत रूप से बात करना पसंद करेगा।

२८ जनवरी १९८९ को तिब्बत में सबसे प्रभावशाली तिब्बती नेताओं में से एक पंचेन लामा का अचानक और रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया। ७ फरवरी को चीन ने परम पावन दलाई लामा को १५ फरवरी को होने वाले पंचेन लामा के दाह संस्कार कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। अल्प अवधि की सूचना के कारण, परम पावन निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ थे। फिर भी २१ मार्च १९९१ को परम पावन दलाई लामा ने पंचेन लामा के पुनर्जन्म की खोज में अपनी सहायता देने की पेशकश की। इसी तरह, ९ अक्तूबर १९९१ को येल विश्वविद्यालय में दिए अपने संबोधन में परम पावन दलाई लामा ने कुछ वरिष्ठ चीनी नेताओं और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ में तिब्बत की यात्रा करने का प्रस्ताव रखा। परम पावन ने कहा, यह यात्रा उन्हें तिब्बत के अंदर की स्थिति की सच्चाई का पता लगाने और तिब्बत में तिब्बती लोगों को उनके संघर्ष के साधन के रूप में अहिंसा का त्याग न करने के लिए राजी करने में मदद करेगी।

उसी वर्ष (१९९१) के दिसंबर में परम पावन दलाई लामा ने चीन के प्रधानमंत्री ली पेंग की नई दिल्ली यात्रा के दौरान उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। इसके बाद, २६ फरवरी १९९२ को तिब्बती नेतृत्व ने एक दस्तावेज जारी किया, जिसका शीर्षक था भविष्य की तिब्बत की राजनीति और उसके संविधान की बुनियादी विशेषताओं के लिए दिशा-निर्देश। दस्तावेज़ में कहा गया है कि निर्वासन में तिब्बतियों के तिब्बत लौटने पर वर्तमान तिब्बती प्रशासन भंग हो जाएगा और परम पावन दलाई लामा अपनी सारी पारंपरिक राजनीतिक शक्ति एक अंतरिम सरकार को सौंप देंगे। अंतरिम सरकार यह स्पष्ट करती है कि वह एक लोकतांत्रिक संविधान को तैयार करने के लिए जिम्मेदार होगी, जो तिब्बत की नई सरकार के प्रत्यक्ष चुनाव का मार्ग प्रशस्त करेगी। चीनी नेतृत्व की अनिच्दा के कारण यह प्रस्ताव भी विफल रहा।

इन्हीं परिस्थितियों में तिब्बती जन प्रतिनिधियों की सभा, तिब्बती डायस्पोरा के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने २३ जनवरी १९९२ को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया था कि चीनी नेतृत्व के रवैये के कारण निर्वासित तिब्बती प्रशासन को चीन के साथ वार्ता के लिए कोई नया कदम तब तक शुरू नहीं करना चाहिए जब तक कि कोई सकारात्मक परिवर्तन न हो।

अप्रैल १९९२ में नई दिल्ली में चीनी राजदूत ने ग्यालो थोंडुप से संपर्क किया और उन्हें बताया कि अतीत में चीनी सरकार की स्थिति ‘रूढ़िवादी’ रही है, लेकिन अगर तिब्बती ‘यथार्थवादी’ होने के लिए तैयार हैं, तो वह ‘लचीला’ रुख अपनाने को तैयार है। उन्होंने थोंडुप को एक बार फिर बीजिंग आने के लिए आमंत्रित किया। लेकिन जब जून १९९२ में थोंडुप ने बीजिंग में चीनी नेताओं से मुलाकात की तो उनके साथ परम पावन दलाई लामा के खिलाफ आरोपों की झड़ी लग गई। उन्होंने बीजिंग के रुख में लचीलेपन का संकेत देने वाली कोई बात नहीं सुनी।

परम पावन ने महसूस किया कि चीन द्वारा उन पर लगाए गए आरोपों से संकेत मिलता है कि चीनी नेतृत्व तिब्तत मुद्दे पर उनके विचारों को ठीक से नहीं समझ पाया है। हालाँकि, परम पावन ने सितंबर १९९२ में चीनी नेताओं- देंग शियाओपिंग और जियांग जेमिन को एक व्यक्तिगत पत्र और एक विस्तृत ज्ञापन भेजकर बातचीत शुरू करने के अपने प्रयासों को फिर से दोहराया। इसमें चीन के हितों को समायोजित करने की अपनी तैयारी को दोहराया और बातचीत का आह्वान किया। उस ज्ञापन के अंत में परम पावन ने कहा, ‘अब समय आ गया है कि चीन सरकार तिब्बत और चीन को मित्रवत रहने का रास्ता दिखाए। तिब्बत की मूल स्थिति के बारे में चरणबद्ध तरीके से विस्तृत रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। यदि इस तरह की स्पष्ट रूपरेखा दी जाती है तो चाहे किसी समझौते की संभावना हो या न हो, इसकी परवाह किए बिना हम तिब्बती निर्णय ले सकते हैं कि चीन के साथ रहना है या नहीं। यदि हम तिब्बतियों को हमारे मूल अधिकार प्राप्त हो जाते हैं, तो संभावित लाभों को देखते हुए हमें चीनियों के साथ रहने में कोई परेशानी नहीं होगी।’

परम पावन ने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को चीन भेजने का भी निर्णय लिया। बीजिंग ने इस प्रतिनिधिमंडल में केवल दो सदस्यों को स्वीकार किया। जून १९९३ में प्रतिनिधियों ने बीजिंग में पाया कि परम पावन के प्रति चीनी नेतृत्व के कठोर रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

४ सितंबर १९९३ को परम पावन दलाई लामा ने एक संक्षिप्त प्रेस वक्तव्य जारी किया और देंग शियाओपिंग और जियांग जेमिन को लिखे पत्रों की प्रति प्रेस को जारी किया। परम पावन ने एक बार फिर स्पष्ट रूप से चीनी सरकार से ‘बिना किसी देरी और पूर्व शर्त के बातचीत शुरू करने’ का आह्वान किया। परम पावन ने ‘श्री देंग शियाओपिंग द्वारा तैयार किए गए ढांचे के भीतर एक उचित और न्यायसंगत समाधान’ पर बातचीत करने की तिब्बती इच्छा को दोहराया और स्पष्ट किया, ‘मैंने कभी तिब्बत की स्वतंत्रता पर बातचीत का आह्वान नहीं किया।’ तब से कई मौकों पर, परम पावन ने स्पष्ट किया कि वे स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे थे, बल्कि ‘चीनी संविधान के ढांचे के भीतर तिब्बत के लिए वास्तविक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं।’ यह स्थिति परम पावन ने हाल ही में १० मार्च २००५ के वक्तव्य में दोहराई, ‘मैं एक बार फिर चीनी अधिकारियों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि जब तक मैं तिब्बत के मामलों के लिए जिम्मेदार हूं, तब तक हम मध्यम मार्ग दृष्टिकोण के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं कि हम स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे। हम तिब्बती चीनी जनवादी गणराज्य के भीतर रहने को तैयार हैं।’

परम पावन दलाई लामा के अथक प्रयासों को १९८९ में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। तिब्बती नेता को कई अन्य पुरस्कार दिए गए, लेकिन नोबेल पुरस्कार और उस पर भारी प्रतिक्रिया से पीड़ित तिब्बती लोगों की भलाई के लिए शांतिपूर्ण बातचीत से मुद्दे के समाधान की खोज की परम पावन की दृढ़ प्रतिबद्धता और गतिविधियों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मान्यता और समर्थन की पुष्टि हुई।

२७ जून १९९८ को अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने बीजिंग में एक लाइव टेलीविज़न संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस टीवी शो के दौरान (दुनिया भर में प्रसारित) क्लिंटन ने जियांग को दलाई लामा के साथ संवाद शुरू करने के लिए कहा। जियांग ने उत्तर दिया, ‘जब तक दलाई लामा सार्वजनिक तौर पर यह प्रतिबद्धता व्यक्त नहीं करते हैं कि तिब्बत चीन का एक अविभाज्य हिस्सा है और ताइवान चीन का एक प्रांत है, तब तक बातचीत का द्वार खोलना संभव नहीं है।’ उल्लेखनीय है कि चीन की ओर से इस बार बातचीत के लिए एक नई पूर्व शर्त के रूप में ताइवान का मुद्दा सामने आया।

फिर २५ अक्तूबर १९९९ को फ्रांसीसी दैनिक ले फिगारो को एक लिखित साक्षात्कार में राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने सभी पूर्व शर्तों को दोहराया और कहा, ‘दलाई लामा को वास्तव में तिब्बत की स्वतंत्रता की अपनी हठ को छोड़ देना चाहिए और मातृभूमि को विभाजित करने की अपनी गतिविधियों को रोकना चाहिए। वह घोषित करें कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सरकार पूरे चीन का प्रतिनिधित्व करने वाली वैध सरकार है।’

कई वर्षों तक परम पावन ने चीनी नेतृत्व को एक ईमानदार वार्ता में शामिल करने का भरसक प्रयास किया। दुर्भाग्य से, चीनी नेतृत्व की ओर से राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूरदृष्टि की कमी के कारण परम पावन की कई पहलों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने पर चीनी नेतृत्व विफल रहा। अंत में, अगस्त १९९३ में चीनी सरकार के साथ तिब्बती नेतृत्व का औपचारिक संपर्क समाप्त हो गया।

उसके बाद से सितंबर २००२ तक दोनों पक्षों के बीच कोई औपचारिक और सीधा संपर्क नहीं हुआ। ९ सितंबर २००२ को बीजिंग ने चार सदस्यीय तिब्बती प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की, जिसका नेतृत्व परम पावन के विशेष दूत लोदी जी. ग्यारी ने किया। यात्रा के दौरान, प्रतिनिधियों ने चीन और तिब्बत दोनों में कई चीनी और तिब्बती नेताओं से मुलाकात की। जैसा कि बीजिंग से लौटने पर प्रतिनिधिमंडल द्वारा जारी प्रेस बयान में उल्लिखित है, यात्रा का उद्देश्य द्वि आयामी था- एक, बीजिंग में नेतृत्व के साथ सीधे संपर्क स्थापित करना और सीधे आमने-सामने बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाना, नियमित रूप से बैठकें करना तथा दूसरा, तिब्बत के मुद्दे को हल करने की दिशा में परम पावन दलाई लामा के मध्यम मार्ग दृष्टिकोण की व्याख्या करना।

नए संपर्क को बनाए रखने के लिए उसी प्रतिनिधिमंडल ने २५ मई से ८ जून २००३ तक दूसरी बार चीन और तिब्बती क्षेत्रों का दौरा किया। इस यात्रा के समय ही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ-साथ चीनी सरकार के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ था। इस कारण तिब्बती प्रतिनिधिमंडल को नए चीनी नेताओं और तिब्बत के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और निर्वासित तिब्बती लोगों के नेताओं के बीच संबंधों को व्यापक रूप से व्याख्या करने का अवसर मिला। बीजिंग में प्रतिनिधिमंडल ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संयुक्त मोर्चा कार्य विभाग की प्रमुख सुश्री लियू यांडोंग, श्री झू वेइकुन, उप प्रमुख, श्री चांग रोंगजुंग, उप महासचिव और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की।

तिब्बती प्रतिनिधिमंडल ने सितंबर २००४ में बीजिंग में चीनी प्रतिनिधिमंडल के साथ तीसरे दौर की बैठक की। इस बैठक में, दोनों पक्षों ने अंतराल को कम करने और एक आम सहमति तक पहुंचने के लिए और अधिक ठोस चर्चा की आवश्यकता को स्वीकार किया। इसके बाद चौथे दौर की बैठकें ३० नवंबर और १ नवंबर २००५ को स्विट्जरलैंड के बर्न में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के दूतावास में हुईं। परम पावन के विशेष दूत लोदी जी. ग्यारी और दूत केलसांग ग्यालत्सेन, तीन वरिष्ठ सहायकों, सोनम एन. डगपो, नगापा त्सेग्यम और भुचुंग के. त्सेरिंग थे। इनकी बातचीत चीन के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ हुई । चीनी प्रतिनिधिमंडल में उप मंत्री झू वेइकुन के नेतृत्व में छह सदस्य शामिल थे। उप मंत्री झू ने घोषणा की कि तिब्बती प्रतिनिधिमंडल के साथ उनका सीधा संपर्क अब स्थिर और एक ‘स्थापित प्रथा’ बन गई है। उन्होंने तिब्बती प्रतिनिधिमंडल को यह भी बताया कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने परम पावन दलाई लामा के साथ संपर्क को बहुत महत्व दिया है। तिब्बती पक्ष ने कुछ ठोस प्रस्ताव रखे जो विश्वास का निर्माण करने में मदद करेंगे और तिब्बती मुद्दे के पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान को प्राप्त करने के लिए ठोस बातचीत करने के उद्देश्य से चल रही प्रक्रिया को एक नए स्तर पर ले जाने में मदद करनेवाले थे। इस बीच, परम पावन दलाई लामा के मध्यम मार्ग दृष्टिकोण के आधार पर तिब्बत के मुद्दे को हल करने के लिए केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) ने बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए अपने बूते हरसंभव प्रयास किया और विश्वास बहाली के उपाय की एक श्रृंखला जारी की। सीटीए ने इन कदमों को तब तक उठाने के लिए प्रतिबद्धता जताई, जब तक कि तिब्बत के मुद्दे को तिब्बती और चीनी दोनों लोगों के सर्वोत्तम हित में बातचीत के जरिए हल नहीं कर लिया जाता।